वैदिकता बिना ऑर्गेनिक कृषि अधूरी
– राजेंद्र गुप्त
भारत सहित पूरी दुनिया में आर्गेनिक फार्मिंग अर्थात जैविक खेती को बढ़ावा देने पर सहमति बन रही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदीेे लोकसभा के अपने पहले संबोधन से सिक्किम की सफलता का उदाहरण देते हुए जो पहल की थी वह भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति़़ तक पहुंच गई है । वैसे आर्गेनिक या प्राकृतिक खेती हम भारतीयों के लिए नई बात नह्रीं। यह हमारी उसी देसी अर्थात वैदिक खेती का हिस्सा है, जिसे हमने कोई साठ वर्ष पहले रासायनिक खादों और टैक्नोलॉजी पर आधारित पहली हरित क्रांति की भेंट चढ़ा दिया था। यह सही है नॉर्मन बोलरॉग के नेतृत्व में विकासशील देशों में आयी इस क्रांति से भारत सहित अनेक विकासशील देशों के अन्न उत्पादन में कई गुना वृद्धि हुई, लेकिन अब इस उपलब्धि की कीमत चुकाने के दिन आ गए हैं
इस क्रांति ने लंबे समय तक भुखमरी से भले निजात दिलाई हो, लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में हमारे खेतों और लोगों दोनों की सेहत पर बुरा असर डाला है। रासायनिक खादों ने जहां खेतोें को बंजर में तब्दील किया है, कीटनाशकों के प्रयोग ने आदमी की सेहत को जानलेवा बीमारियों का शिकार बनाया है। हालत यह है कि दुनिया में अपने स्वास्थ्य के प्रति सजग ऐसे लोगोे की संख्या में तेजी से इजाफा हो रहा है, जो भले थोड़ा महंगा हो, लेकिन ऐसी उपज से बना भोजन खाना चाहते हैं, जिसके उगाने और सरंक्षण में हरित या जैविक खादों और कीटनाशकों का प्रयोग किया गया हों। पिछले पांच-दस सालों में भारत में इस दिशा में अनेक स्वयंसेवी संगठनों की पहल पर जाग्रति आई है और सरकारी नीतियां भी प्रभावित हुई है, लेकिन व्यापक हितों, जैसे भूमि और मानवीय और परिवेश के संदर्भ में हमारा लिए इस खेती के समग्र रूप वैदिक खेती के महत्व को समझना आवश्यक है।
दरअसल आर्गेनिक खेती वैदिक खेती का वैसा ही अंग है जैसे यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार योग के बर्हिरंग हैं। योग के अन्तरंग धारणा, ध्यान और समाधि की भांति वैदिक खेती का एक और महत्वपूर्ण भाग है, उसका स्रैष्टिक संयोग अर्थात राशियों, ग्रहों और नक्षत्रों की विशेष स्थिति में खेतों की जुताई, बुवाई, उड़ाई, यहां तक की कटाई से भी इसका सीधा सरोकार है। सामान्य पंचांग की भांति एक कृषि पंचांग होता है, जिसे कुछ संस्थाएं अब भी प्रकाशित करती हैं। वैदिकी में ग्रीष्म, वर्षा, शरद, शिशिर, वसंत और हेमंत छः ऋतुएं बताई गई हैं और तीन प्रकार की फसलों में से मुख्य खरीफ और रबी के लिए महर्षि पाराशर, महर्षि कश्यप और वाराहमिहिर ने विशेष अनुशंसाएं की हैं। दरअसल कृषि पंचांग का आधार चंद्रमा है, जिसके आधार पर बारह राशियां और 27 ऩ़क्षत्रों की स्थिति के हिसाब से तय होता है कि कौन सा दिन कौन सा लगन किस चीज के लिए अनुकूल और किस चीज के लिए प्रतिकूल है। हर नक्षत्र के अपने प्रतीक के साथ उसकी जाति और देवता होता है, जो उसके व्यक्ति या वातावरण पर पड़ने वाले तामसिक, राजसिक या सात्विक प्रभाव का द्योतक होता है।
पाराशर ऋषि ने रोहिणी और मृगशिरा नक्षत्र के अतिरिक्त स्वाति, उत्तर आषाढ़, उत्तर भाद्रपद, उत्तर फाल्गुनी, मूल, पुनवर्सु, पुष्य और हास्य नक्षत्र भी जुताई के लिए अच्छे माने गए हैं। महाराष्ट्र में किसान आषाढ के महीने में मृग नक्षत्र में कपास की खेती का काम प्रारंभ करते हैं। इन ऩक्षत्रों के अलावा, पखवारे के दूसरे, तीसरे, पांचवे, सातवें, दसवें, ग्यारहवें और तेरहवें और वार के हिसाब से सोम, बुध, गुरू और शुक्र के दिन जुताई प्रारंभ करने की अनुशंसा की गई है। लगन रांिशयोे में वृषभ, मीन, मिथुन, धनु और वृश्चिक राशि को अनुकूल बताया गया है।
वैदिक कृषि पंचांग बुआई के लिए रिक्त दिनों अर्थात पखवारे के चौथे, नवें और चौंदहवें दिन का निषेध करता है। इसके अलावा आर्ष ज्योतिषाचार्यों ने यदि सूर्य कर्क में हो तो बीज एक हाथ की दूरी पर, सिंह में हो तो आधे हाथ की दूरी पर, कन्या राशि में हो तो चार अंगुल की दूरी पर बीज डालने की संस्तुति की है। वाराहमिहिर ने छांछ में भीगे बीजों के जल्दी अंकुरित होने की बात की है, परन्तु गेहूं और धान के लिए हल्दी के प्रयोग की बात की है।
वैदिक खेती मेे ‘पंचकोविया’ का उल्लेख हुआ है। इसकी संस्तुति करते हुए महर्षि कश्यप ने कहा है किे अच्छी और पोषक खेती के लिए वेदपाठी ब्राह्यणों को ऋचाओं का पाठ करते हुए बुवाई के पूर्व प्रातःकाल या सायंकाल में गाय के पंचगव्यों का छिड़काव करना चाहिए। बुवाई के बाद फसले उगने और बढ़ने के बाद फसल को काटने, खलिहान में इकट्ठा करने और घर ले जाने के लिए, भी अनुशंसाएं आई हैं। मीन लग्न में अन्न भंडारण को अच्छा बताया गया है, तो सोम, गुरु, शुक्र, शनि के दिन में खौंड़ा लगाने से बचने के लिए कहा गया है। आचार्यो ने बैसाख मास में अक्षय तृतीया को अविजित नक्षत्र कहते हुए इस दिन रबी की फसल के नवान्न पर्वण के रूप में मनाने की संस्तुति की है, तो राहु की महादशा में खेती के लिए अशुभकारक बताया गया है। वैसे प्रत्याशित और अप्रत्याशित अशुभों से बचने के लिए कई अनुष्ठान या टोटके अभी भी सुदूर गांवों में चलन में हैं, जिन पर अधिक चर्चा करने से ज्यादा आवश्यक है कि इन वैदिक संस्तुतियों की वैज्ञािनक पड़ताल की जाए।
विगत तीस वर्षों में विभिन्न वेद द्यिाओं, जैसे योगासनों, प्राणायाम और ध्यान की पद्धतियों, यज्ञोे और अग्निहोत्रोे, आयुर्वेद के औषधि योगों और वास्तु पर दुनिया भर मे शोध हुए हैं और अधिकांश के निष्कर्ष उत्साहजनक और जीवनपोषक आए हैं। आर्गेनिक खेती के वाह्यपक्ष की प्रमाणिकता पर भी किसी को संदेह नहीं है। जहां तक वैदिक खेती के स्रैष्टिक पक्ष की बात है, तो इस दिशा में भले अब तक गहराई और व्यायपकता से शोधकार्य न हुआ है, किन्तु मशरूम की खेती पर शुक्ल पक्षीय और कृष्णपक्षीय पखवारे को लेकर हुए शोधों के परिणाम वैदिक कृषि की इन संस्तुतियों की प्रमाणिकता का संकेत देते हैं।
प्रयोगों का आधार था कि यदि चंद्रमा का शुक्ल और कृष्ण पक्ष समुद्र के ज्वार भाटे ओर दमा के मरीजों के रोग मे वृद्धि का कारण बन सकता है, तो इसका प्रभाव फसलोे के उगने और बढ़ने पर भी हो सकता है। इस हिसाब महीने को चार चरणों में बांटा गया। कृष्ण पक्ष अर्थात अमावस्या से लेकर पहले सात दिन का पहला चरण, सात दिन से लेकर से चौदहवें दिन तक तक दूसरा चरण, चौंदहवे दिन से लेकर इक्कीसवें दिन तक तीसरा चरण और इक्कीसवें दिन से अट्ठाइसवें दिन तक चौथा चरण। कुछेक वैज्ञानिकों को छोड़कर ज्यादातर इस बात से सहमत थे कि मशरूम जिसे वनस्पति विज्ञान फफूंदी की श्रेणी में रखता है, शुक्ल पक्ष में कहीं तेजी से उगता और बढ़ता है। इस निष्कर्ष के चलते मशरूम की खेती महीने के दूसरे चरण अर्थात जब अमावस्या के सात दिन बाद से प्रारंभ का चलन चल निकला। उल्लेखनीय है कि वैदिक खेती में भी जिन नक्षत्रों को महत्व दिया गया है, वे भी चंद्रमा की स्थिति से संबंद्ध हैं।
वैदिक ज्योतिष यथा पिंड तदा ब्रह्यांडे का उद्घोष करता है। कोई भी जीव वह चाहे जन्तु हो या वनस्पति जब तक ब्रह्मांड के, स्रष्टि के विविधि नियमों के साहचर्य में रहता है, तो पोषकता की पराकाष्ठा में होता है। यह जो वैदिक कृषि के बारे में ऋषियों और आचार्यो की संस्तुतियां हैं, वे पिंड को स्रैष्टिक नियमों के, प्रकृति के नियमों के अनुकूल रखकर उसमें देवत्व की प्रतिष्ठापना की हैं, अन्नं ब्रह्मं को चरितार्थ करने की है। आशा की जानी चाहिए कि आर्गेनिक फार्मिंग के पैरोकार इस तथ्य पर भी गौर करेंगे और आर्गेनिक खेती को उसकी पूर्णता अर्थात वैदिक खेती तक व्यापक बनाने का अभियान चलाएंगे।…….